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कविता

दूब से मरहम

विनीता परमार


गहरी नींद से उठकर
गहरा हरा रंग डाला
तो ये जख्म और भी हरे हो गए

अब कुछ हरा-भरा नहीं रहा
बुलबुले सी जिंदगी से
जाने कब हरियाली निकल गई
इसका पता ही ना चला

हरी काई के ऊपर आत्मा फिसलती रही
हरी दूब के मरहम से शायद
अब ये घाव भर पाए
कोई ऐसा मानस दिख जाए
जो गहरे रंग को चटक बना दे
इस सूखी हरियाली में स्फुरण ला दे।


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